गुरुवार, 28 मार्च 2013

वाक् और संगीत

        प्राचीन वैयाकरणों ने स्वराघात को संगीतात्मक माना है और इस बात में विश्वास व्यक्त किया है कि संगीत की उत्पत्ति भाषा से हुई है। आधुनिक काल में भी इस मत के समर्थक विद्वान मिलते हैं। ज्यूल्स कोबोरेउ की पुस्तक ‘संगीत : इसके नियम तथा उत्पत्ति’ में सरल गीतों को तानात्मक आधात से विकसित बताया गया है। नारद शिक्षा और एक अन्य प्रातिशाख्य के अनुसार संगीत के सुरग्राम के सात स्वर तीन स्वराघातों से ही चलते हैं : उच्च (उदात्त), निम्न (अनुदात्त) तथा स्वरित। ऐसी मान्यता है कि प्रथम तथा द्वितीय स्वरों की उत्पत्ति अनुदात्त स्वराघात से होती है, तृतीय तथा चतुर्थ की उदात्त से, तथा पंचम, षष्ठ एवं सप्तम की स्वरित से। यह भी मान्यता है कि अंतिम तीन स्वरों में से सातवें स्वर की उत्पत्ति स्वतंत्र अभिनिहित से तथा स्वरित के क्षैप्र भेद से होती है।
       संगीत पर लिखे प्रमुख संस्कृत ग्रंथ संगीतरत्नाकर इस बात की ओर स्पष्ट संकेत देता है कि संगीत मानव वाक् से संबद्ध है। इस ग्रंथ के अनुसार कण्ठ्य-संगीत प्रधान है और वाद्य एवं नृत्य उसका अनुसरण करते हैं। अन्यत्र गीत का मूल तान में खोजा गया है; कहा गया है कि प्राण एवं श्वास से उद्भूत नाद की प्रथम अभिव्यक्ति वर्णों के रूप में होती है। इनसे शब्दों तथा शब्दों से वाक्यों की अभिव्यक्ति होती है। इस प्रकार भाषा कण्ठ्य-संगीत की चरम हेतु नहीं, तो तात्कालिक हेतु अवश्य है, जिसका कि बाद में वाद्य-संगीत तथा नृत्य पर प्रभुत्व रहा। नारद शिक्षा के अनुसार अच्छा संगीत स्पष्ट उच्चारण पर निर्भर करता है। इस ग्रंथ में सुसंगीत के दस गुण बताए गए हैं, जिनमें एक गुण व्यक्त संगीत भी है। व्यक्त संगीत उसे कहा गया है, जिसमें व्याकरणिक रूपों की स्पष्ट अभिव्यक्ति हो - अर्थात् पद, पदार्थ, प्रकृति प्रत्यय, आगम, लिंग, विभक्ति आदि।
         ये तथ्य इस बात का स्पष्ट संकेत देते हैं कि भाषा और संगीत परस्पर घनिष्ठ रूप से संबद्ध थे। इस बात की पुष्टि संगीतरत्नाकर और नारद शिक्षा के लेखकों के मत से भी होती है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें